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तेरा साई तुज्झ में (कबीर वाणी)

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5464
आईएसबीएन :81-7182-244-4

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ओशो द्वारा कबीर वाणी पर दिये गये पांच अमृत प्रवचनों का संकलन...

Tera Sai Tujha Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।’...कबीर कहते हैं कहीं और जाना नहीं है। ‘तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग’...बस करना इतना ही है कि तू जाग। साईं को नहीं खोजना है, जागना है। और भूलकर कहीं साईं को खोजने मत निकल जाना, बिना जागे; नहीं तो नींद में बहुत भटकोगे पहुँचोगे कहीं नहीं, क्योंकि—तोरा साईं तुज्झ में। जाते कहाँ हो खोजने ? जितनी दूर निकल जाओगे खोजने, उतने ही उलझन में पड़ जाओगे। परमात्मा को खोजना नहीं है, बस जगाना है। आती है गंध कस्तूरी की भीतर से। नाफा पक गया, कस्तूरी तैयार है। भागता है पागल होकर मृग, ‘कहां से आती है यह गंध ?’ उसकी नाभि में है कस्तूरी। पर मृग को कैसे पता चले ? मनुष्यों को भी पता नहीं चलता कि गंध नाभि में है।
तुम्हारे जीवन का स्रोत तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे आनंद का स्रोत भी तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे अस्तित्व का केन्द्र तुम्हारी नाभि है। अगर तुम अपनी नाभि में उतर जाओ, तो तुमने परमात्मा का द्वार पा लिया।

तेरा साईं तुज्झ में

ओशो विरलतम और श्रेष्ठतम हैं। क्योंकि वे बहुआयामी हैं। कृष्ण, बुद्ध, क्राइस्ट, पतंजलि, लाओत्से और महावीर, कबीर उन्हीं में समाहित हैं—वे ही हैं। फलतः उनके परम स्वभाव के प्रस्फुटन में न केवल उनका ओशो बोल उठा है, वरन उनका बुद्ध, उनका कृष्ण, लाओत्से, महावीर, कबीर व उनका पतंजलि, सभी एक साथ बोल उठे हैं।
पहली बार सभी बुद्धपुरुष एक साथ एक ही परम घटना के रूप में प्रकट हुए हैं।
धर्म के समस्त अंगों का समान विकास कर, स्वस्थतम व संपूर्णतम धर्म को साकार करने वाले परम वैज्ञानिक हैं ओशो !
ओशो कहते हैं—

‘मैंने किसी से प्रेरणा नहीं ली है। पढ़ा मैंने सबको, मैंने सबको इनकारा। और कोई उपाय भी न था। जिसको मैं नहीं जानता, उसे मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। जो मेरा अनुभव नहीं है, उसे मैं क्यों स्वीकार करूँ ? मैं कभी विश्वास पर अपने जीवन की भित्ति नहीं रखी। संदेह मेरी प्रक्रिया रही। और तुम जानकर चकित होओगे कि संदेह करते-करते मैं परम श्रद्धा को पहुंचा। संदेह ने रास्ता साफ कर दिया, संदेह सीढ़ी बन गया। संदेह ने काट दिया जाल सब व्यर्थ के विश्वासों का।
और जब हृदय बिलकुल शून्य हो जाता है, तो इसकी प्रकृति का एक नियम कि वह शून्य को तत्क्षण भर देती है। जहाँ भी शून्य होता है, वहीं भरने पहुंच जाती है। अगर बाहर का शून्य हो तो भी भर दिया जाता है। भीतर का शून्य परम चैतन्य से भर जाता है।
भगवान श्री रजनीश
अब केवल ‘ओशो’
नाम से जाने जाते हैं।

ओशो के अनुसार उनका नाम
विलियम जेम्स के शब्द
‘ओशनिक’ से लिया गया है, जिसका
अभिप्राय है सागर में विलीन हो जाना।

‘ओशनिक’ से अनुभूति की व्याख्या तो होती है,
लेकिन, वे कहते हैं कि अनुभोक्ता के संबंध में
क्या ? उसके लिए हम ‘ओशो’ शब्द का प्रयोग करते
हैं। बाद में उन्हें पता चला कि ऐतिहासिक रूप से
सुदूर पूर्व में भी ‘ओशो’ शब्द प्रयुक्त होता रहा है,
जिसका अभिप्राय है : भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति,
जिस पर आकाश फूलों की वर्षा करता है।

मो को कहां ढूंढ़ो बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं बकरी, ना मैं भेड़ी, न मैं छुरीगंड़ास में।।
नहीं खाल में, नहिं पोंछ में, ना हड्डी, ना मांस में।
ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबेकैलास में।।
ना तो कौनो क्रिया-कर्म में, नहीं जोग-बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल-भर की तालास में।।
मैं तो रहौं सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में।।

परमात्मा प्रत्येक का स्वभावसिद्ध अधिकार है। उसे खोया होता तो तुम कभी पा न सकते थे। उसे खोया नहीं है, इसलिए पाने की संभावना है। और उसे खोया नहीं है, इसलिए खोज बड़ी मुश्किल है। जिसे खो दिया हो, उसे खोजने की संभावना बन जाती है। लेकिन जिसे खोया ही न हो, उसे तुम खोजोगे कैसे ? इसलिए परमात्मा पहेली बन जाना है। इस पहेली को ठीक से समझ लें। इस पहेली के कुछ आधारभूत नियम हैं।

पहला नियम : जिसे तुमने सदा से पाया है, उसकी तुम्हें याद नहीं आ सकती। वह सदा ही तुम्हें मिल रहा है; एक क्षण को भी वियोग नहीं हुआ। याद तो उसकी आती है, जिससे वियोग हो जाए। मछली को सागर का पहली बार पता चलता है, जब वह सागर के बाहर निकाली जाती है। अन्यथा मछली को पता नहीं चलता कि सागर है। पता चलेगा कैसे ? सागर में ही पैदा हुई; सागर में ही आँख खोली; सागर में जीयी; सागर में ही दौड़ी-भागी, सुख-दुःख पाए; सागर से सदा ही घिरी रही; बाहर भी सागर, भीतर भी सागर—सागर का पता कैसे चलेगा ? पता चलने के लिए वियोग जरूरी है। तो मछुआ जब मछली को बाहर निकाल लेता है सागर से, तब पहली दफा सागर की याद आती है। लेकिन तुम्हें तो परमात्मा के बाहर निकालने का कोई उपाय नहीं है; कोई मछुआ नहीं है, जो तुम्हें बाहर निकाल ले; कोई जाल नहीं है, जो तुम्हें परमात्मा के बाहर निकाल ले; कोई किनारा नहीं है, जहां तुम्हें परमात्मा के बाहर निकाल लिया जाए। परमात्मा बेकिनारा है। उसकी कोई सीमा नहीं है, जहाँ वह समाप्त होता है। तुम उसके बाहर नहीं जा सकते—यही अड़चन है।
इसलिए उसकी याद नहीं आती। याद आए कैसे ?
यह तो पहली कठिनाई है पहेली की।

वियोग हो सकता तो योग बड़ा आसान था। तब कोई उपाय खोज लेते, कोई रास्ता बना लेते। वियोग नहीं हो सकता है, इसलिए योग असंभव है।
ऐसी समझ तुम्हारे मन में गहरी बैठ जाए, ऐसी समझ तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाए, तो अचानक खोज समाप्त हो गई; जिसे कभी खोया ही नहीं, उसे पा लिया। यह केवल बोध का रूपांतरण है। न तो कुछ पाने को है, न कुछ खोने को है; सिर्फ समझ की क्रांति है; सिर्फ आंख खोलकर स्थिति को देखना है।

दूसरी बात : जो भीतर है, उसे पाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि, सारी इंद्रियां बाहर खुलती हैं। आंख बाहर देखती हैं; हाथ बाहर छूते हैं; कान बाहर की आवाज सुनते हैं; नासापुट बाहर की गंध लेते हैं—सारी इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं। क्योंकि इंद्रियां प्रकृति का हिस्सा हैं, प्रकृति से जुड़ी हैं। प्रकृति बाहर है; परमात्मा भीतर है। और प्रकृति से जुड़ने के लिए इंद्रियों की जरूरत है। इंद्रियां न हों तो तुम्हारा प्रकृति से संबंध छूट जाएगा। अंधे आदमी का क्या संबंध है प्रकाश से ? बहरे का क्या संबंध है संगीत से, शब्द से ? इंद्रियां न हों तो प्रकृति से संबंध छूट जाएगा।
अब ज़रा बारीक मामला है, ठीक से समझ लेना। और इंद्रियां हों तो परमात्मा से संबंध छूट जाएगा। क्योंकि, भीतर के लिए किसी इंद्रिय की जरूरत नहीं। दूसरे से जुड़ना हो तो संबंध बनाने के लिए कुछ आधार चाहिए। अपने से ही जुड़ने के लिए क्या आधार जरूरी है ? भीतर आँख जा नहीं सकती; हाथ नहीं जा सकते—जरूरत भी नहीं है।

कमरे में अंधेरा हो तो रोशनी जला लो, कमरे में रोशनी हो जाती है। लेकिन कमरे में अंधेरा हो, तब भी तुम्हारे भीतर तो अंधेरा नहीं होता। कमरे में रोशनी जल जाए, जब भी तुम्हारे भीतर रोशनी नहीं होती; बाहर-ही-बाहर सब घटता रहता है। कितना ही गहन अंधेरा हो, तुम्हें अपना तो पता चलता रहता है अंधेरे में भी कि मैं हूं। किसी का पता नहीं चलता, टेबल का पता नहीं चलता; दीवाल का पता नहीं चलता; कोई और बैठा हो कमरे में, उसका पता नहीं चलता; तुम्हारा प्रियतम बैठा हो, उसका पता नहीं चलता; भगवान की मूर्ति रखी हो कमरे में, उसका पता नहीं चलता—सब खो जाता है अंधेरे में। क्योंकि आंख की इंद्रिय रोशनी में काम कर सकती है; बिना रोशनी के आंख बेकार हो जाती है; बाहर का कुछ पता नहीं चलता। क्या तुम्हें यह भी भूल जाता है कि तुम हो ? तुम्हें अपना होना तो पता चलता ही रहता है। तुम्हें अपने होने की तो अहर्निश धारा बनी रहती है।

कोई रोशनी तुम्हारे जानने के लिए कि तुम हो, जरूरी नहीं; कोई इंद्रिय जरूरी नहीं। तुम इंद्रियों के पीछे छिपे हो। इंद्रियां प्रकृति से जोड़ती हैं। इंद्रियां न हों तो प्रकृति से संबंध टूट जाता है। इंद्रियां परमात्मा से तोड़ती हैं। इंद्रियां न हों तो परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है।
भीतर की यात्रा अतींद्रिय है; वहां इंद्रियों को छोड़ते जाना है। जब तुम्हारी दृष्टि आंख को छोड़ देती है, तब भीतर की तरफ मुड़ जाती है।
और यह ज़रा समझ लो।

आंख नहीं देखती है; आंख के भीतर से तुम्हारी दृष्टि देखती है। इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम खुली आंख बैठे हो, कोई रास्ते से गुजरता है और दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि तुम्हारी दृष्टि कहीं थी; तुम किसी और सपने में खोए थे भीतर; तुम कुछ और सोच रहे थे। आंख बराबर खुली थी, जो निकला उसकी तस्वीर भी बनी; लेकिन आंख और दृष्टि का तालमेल नहीं था; दृष्टि कहीं और थी—वह कोई सपना देख रही थी, या किसी विचार में लीन थी।

तुम्हारे घर में आग लग गई है। तुम भागे बाहर से चले जा रहे हो। रास्ते पर कोई जयरामजी करता है—सुनाई तो पड़ता है, पता नहीं चलता; कान तो सुन लेते हैं, लेकिन कान के भीतर से जो असली सुनने वाला है, वह उलझा है। मकान में आग लगी है—दृष्टि वहां है। तुम भागे जा रहे हो, किसी से टकराहट हो जाती है—पता नहीं चलता। पैर में कांटा गड़ जाता है—दर्द तो होता ही है, शरीर तो खबर भेजता है, पता नहीं चलता। जिसके घर में आग लगी हो, उसको पैर में गड़े कांटे का पता नहीं चलता है !

इसलिए छोटे दुःख को मिटाने की एक ही तरकीब है : बड़ा दुःख। फिर छोटे दुःख का पता नहीं चलता। इसीलिए तो लोग दुःख खोजते हैं; एक दुःख को भूलने के लिए और बड़ा दुःख खड़ा कर लेते हैं। बड़े दुःख के कारण छोटे दुःख का पता नहीं चलता। फिर दुःखों का अंबार लगाते जाते हैं। ऐसे ही तो तुमने अनंत जन्मों में अनंत दुःख इकट्ठे किए हैं। क्योंकि तुम एक ही तरकीब जानते हो : अगर कांटे का दर्द भुलाना हो तो और बड़ा कांटा लगा लो; घर में परेशानी हो, दुकान की परेशानी खड़ी कर लो—घर की परेशानी भूल जाती है; दुकान में परेशानी हो, चुनाव में खड़े हो जाओ—दुकान की परेशानी भूल जाती है। बड़ी परेशानी खड़ी करते जाओ। ऐसे आदमी नर्क को निर्मित करता है। क्योंकि एक ही उपाय दिखाई पड़ता है यहां कि छोटा दुःख भूल जाता है, अगर बड़ा दुःख हो जाएगा।

मकान में आग लगी हो, पैर में लगा काँटा पता नहीं चलता। क्यों ?  कांटा गड़े तो पता चलना चाहिए। हॉकी के मैदान पर युवक खेल रहे हैं, पैर में चोट लग जाती है, खून की धारा बहती है—पता नहीं चलता। खेल बंद हुआ, रेफरी की सीटी बजी—एकदम पता चलता है। अब मन वापस लौट आया; दृष्टि आ गई।

तो ध्यान रखना, तुम्हारी आंख और आंख के पीछे तुम्हारी देखने की क्षमता अलग चीजें हैं। आंख तो खिड़की है, जिसमें खड़े होकर तुम देखते हो। आंख नहीं देखती; देखनेवाला आंख पर खड़े होकर देखता है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि देखनेवाला और आंख अलग है; सुननेवाला और और कान अलग है; उस दिन कान को छोड़कर सुनने वाला भीतर जा सकता है; आंख को छोड़कर देखने वाला भीतर जा सकता है—इंद्रिय बाहर पड़ी रह जाती है। इंद्रिय की कोई जरूरत भी नहीं है। अतींद्रिय, तुम अपने परम बोध का अनुभव करने लगते हो; अपनी परम सत्ता की प्रतीत होने लगती है।

आंख बाहर खुलती है—इसलिए तुम बाहर ही लगे रहते हो। और बाहर भी विराट प्रकृति है। प्रकृति उतनी ही विराट है, जितना परमात्मा; क्योंकि परमात्मा की प्रकृति है। परमात्मा अगर अंतस्तल हो तो प्रकृति उसका बहिर्विस्तार है। जो भीतर अनंत है, वह बाहर भी अनंत ही होगा। जो एक पहलू पर अनंत है, वह उसके दूसरे पहलू में भी अनंत होगा; क्योंकि अनंत अनंत ही हो सकता है। इंद्रियां बाहर खुलती हैं। अनंत विस्तार है प्रकृति का। तुम खोजते हो जन्मों-जन्मों, तृप्ति नहीं हो पाती—हो नहीं सकती। कुछ-न-कुछ शेष रह जाता है। दौड़ जारी रहती है। सदा शेष रहेगा। सदा दौड़ जारी रहेगी। संसार चलता ही रहेगा, उसका कोई अंत नहीं है; क्योंकि वह परमात्मा से ही चल रहा है।

और इस बाहर की दौड़ में धीरे-धीरे तुम इतने संलग्न हो जाते हो कि तुम्हें याद भी नहीं रह जाती कि यह दौड़ने वाला कौन है; तुम्हें यह याद भी नहीं रह जाती कि यह जाननेवाला कौन है, यह खोजनेवाला कौन है ? और फिर बाहर की दौड़ बाहर के उपकरणों से तादात्म्य निर्मित करवा देती है। तब तुम अपनी शक्ल भी आईने में देखकर पहचानते हो---कैसा दुर्भाग्य है ! खुद की शक्ल देखने के लिए भी आईने की जरूरत पड़ती है। जब तुम दूसरों की आंखों में अपनी झलक खोजते हो। अगर लोग तुम्हें अच्छा कहते हैं तो तुम अच्छा मान लेते हो कि मैं अच्छा हूं; लोग अगर बुरा कहते हैं तो तुम बुरा मान लेते हो कि मैं बुरा हूं; और लोग अगर कहते हैं, तुम सुंदर हो, तो तुम मान लेते हो कि तुम सुंदर हो; और लोग अगर कहते हैं कि तुम कुरुप हो तो तुम मान लेते हो कि तुम कुरूप हो। दूसरों से पूछना पड़ता है कि मैं कौन हूं ? दूसरे भी इतने गहन अंधकार में खड़े हैं। उन्हें खुद भी पता नहीं है कि वे कौन हैं ? वे तुमसे पूछ रहे हैं। अज्ञानियों का जीवन एक-दूसरे के सहारे खड़ा होता है।

ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन हज यात्रा के लिए मक्का गया। साथ में दो मित्र और थे; एक था नाई और एक था गांव का महामूर्ख। वह महामूर्ख गंजा था। एक रात वे भटक गए रेगिस्तान में; गांव तक न पहुंच पाए। रात रेगिस्तान में गुजारनी पड़ी। तो तीनों ने तय किया कि एक-एक पहर जागेंगे, क्योंकि खतरा था। अनजान जगह थी। चारों तरफ सूनसान रेगिस्तान था। पता नहीं डाकू हों, लुटेरे हों, जानवर हों।

पहली ही घड़ी, रात का पहला हिस्सा, नाई के जुम्मे पड़ा। दिनभर की थकान थी; उसे नींद भी सताने लगी, डर भी लगने लगा। रात का गहन अंधकार ! चारों तरफ रेगिस्तान की सांय-सांय ! उसे कुछ सूझा न कि कैसे अपने को जगाए रखे। तो उसने सिर्फ अपने को काम में लगाए रखने के लिए मुल्ला नसरुद्दीन के खोपड़ी के बाल साफ कर दिए—सिर्फ काम में लगाए रखने को ! और वह कुछ जानता भी न था—नाई था। नंबर दो पर मुल्ला नसरुद्दीन की बारी थी। तो जब उसका समय पूरा हो गया तो नसरुद्दीन को उठाया कि उठो, बड़े मियां ! तो नसरुद्दीन ने जागते हुए अपने सिर पर हाथ फेरा, पाया कि सिर सपाट है। उसने कहा, ‘कोई भूल हो गई है। तुमने मेरी जगह उस गंजे मूर्ख को उठा दिया है।’
हमारी पहचान बाहर से है। हम जानते हैं अपने संबंध में वही जो दूसरे कहते हैं। भीतर से अपने को हमने कभी जाना नहीं। हमारी सब पहचान झूठी है। जिस दिन हम अपने को अपने ही तईं जानेंगे, उसी दिन सच्ची पहचान होगी : उसे ही आत्मज्ञान कहा है।

फिर चूंकि इंद्रियां बाहर हैं, इसलिए हम सोच लेते हैं कि सभी कुछ बाहर है। तो हम प्रेम भी बाहर खोजते हैं और प्रेम का झरना भीतर बह रहा है। हम धन को भी बाहर खोजते हैं और भीतर परम धन अहर्निश बरस रहा है; हम आनंद को भी बाहर खोजते हैं और भीतर एक क्षण को भी आनंद से हमारा संबंध नहीं टूटा है। प्यासे हम तड़पते हैं रेगिस्तान में भटकते हैं, द्वार-द्वार भीख मांगते हैं—और भीतर अमृत का झरना बहा जाता है। भीतर हम सम्राट हैं। इंद्रियों के साथ ज्यादा जुड़ जाने के कारण और तादात्म्य बाहर बन जाने के कारण हम भिखारी हो गए हैं। यही नहीं कि हम धन बाहर खोजते हैं, यश बाहर खोजते हैं, स्वयं को बाहर खोजते हैं, हम परमात्मा तक को बाहर खोजने लगते हैं—जो कि हद हो गई अज्ञान की। तो हम मंदिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, गुरुद्वारा बनाते हैं, परमात्मा की प्रतिमा बनाते हैं—हम बाहर से इस भांति आक्रांत हो गए हैं कि हमें याद ही नहीं आती कि भीतर भी एक आयाम है।

अगर किसी से पूछो, ‘कितनी दिशाएँ हैं’, तो वह कहता है, ‘दस।’ आठ चारों तरफ, एक ऊपर, एक नीचे; ग्यारहवीं दिशा की कोई बात नहीं करता—भीतर। और वहा हमारा स्वभाव है, क्योंकि हम भीतर से ही बाहर की तरफ आए हैं—जहां से बही है जीवन की धारा।
मां के गर्भ में छोटे-से अणु थे तुम; खाली आंख से देखे भी न जा सकते थे। उसके भी पूर्व तुम अणु भी न थे; तुम बिलकुल अदृश्य थे। तुम आकाश में चलते तो तुम्हारे पदचिह्न भी न छूटते। तुम वृक्ष से गुजरते तो वृक्ष का पत्ता भी न हिलता तुम्हारे गुजरने से। तुम एक अदृश्य पवन थे। फिर तुम एक गर्भ में एक छोटे-से अणु में प्रविष्ट हुए। अणु भी आंख से दिखाई नहीं पड़ता; यंत्र चाहिए तब दिखाई पड़ता है। तुम बड़े छोटे थे। फिर अणु बड़ा होने लगा ऊर्जा भीतर से बाहर की तरफ फैलने लगी। शरीर निर्मित हुआ, इंद्रियां निर्मित हुईं। तुम्हारा जन्म हुआ। अब तुम जवान हो या बूढ़े हो; लेकिन अगर तुम पीछे लौटो तो तुम पाओगे अति सूक्ष्म अदृश्य में तुम्हारी गंगोत्री है—जहां से यात्रा शुरू हुई—मूल स्रोत है। और वह मूल स्रोत अब भी तुम्हारे भीतर है, क्योंकि उसके बिना तो तुम क्षण-भर भी न रह सकोगे। वह मूल स्रोत उड़ जाएगा, पक्षी उड़ जाएगा, पिंजरा पड़ा रह जाएगा, हड्डी-मांस के सिवाय कुछ भी न बचेगा।

वह जो तुम्हारे भीतर छिपा है—इंद्रियां चूंकि बाहर खुलती हैं—उसकी तुम्हें याद ही नहीं आती। परमात्मा तक को तुम बाहर निर्मित कर लेते हो। और कैसा मजा है, तुम ही बनाते हो परमात्मा की मूर्ति और फिर उसी के सामने घुटने टेककर तुम प्रार्थना करते हो। तुम्हें यह भी याद नहीं आती कि अपनी बनाई हुई मूर्ति के सामने प्रार्थना करने से क्या होगा ! उस परमात्मा को खोजो, जिसने तुम्हें बनाया है। तुम उस परमात्मा के सामने हाथ जोड़े बैठे हो, जो तुमने ही बनाया है। तुम्हारा परमात्मा तुमसे बेहतर नहीं हो सकता। तुम्हारा परमात्मा तुमसे छोटा ही होगा। इसलिए तुम्हारे मंदिर मस्जिद में जो भी देवी-देवता बैठे हुए हैं, तुमसे छोटे हैं। तुमने ही बनाए हैं, तुमने ही सजाया-संवारा है उनको। वे तुम्हारी कृतियां हैं—कलात्मक होंगी, धार्मिक नहीं हो सकतीं। कलात्मक हो सकती हैं, और कला के मंदिर में तुम उन्हें देखो—समझ में आता है; लेकिन धार्मिक उनको समझ लो तो बड़ी भयंकर भूल में पड़ गए। और बाहर के परमात्मा से जो उलझ गया, वह पूजा करे। प्रार्थना करे, तीर्थयात्रा करे, यज्ञ-हवन करे—सब व्यर्थ; सब पानी में चला जा रहा है; वह जैसे रेगिस्तान में पानी डाला जा रहा हो, जैसे रेगिस्तान सोख लेगा—सब खो जाएगा। भीतर की भूमि में डालो पानी—अगर चाहते हो कि परमात्मा का अंकुरण हो। बाहर के रेगिस्तान में पानी डालने से अंकुरण न होगा; क्योंकि जिसने तुम्हें बनाया है, जिससे तुम पैदा हो, जिससे तुम आए हो—उसे तुम अब भी अपने भीतर लिए हो; क्योंकि उसके बिना तो तुम जी ही नहीं सकते। ‘सब सांसों की सांस में !’ तुम्हारी हर सांस में वही श्वास ले रहा है। तुम्हारी हर धड़कन में उसी की धड़कन है। तुम्हारे हर कंपन में उसी का कंपन है। तुम्हारे होने में उसी का होना है।


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